शुक्रवार, 5 मार्च 2010

यूं हैं श्रीकृष्ण पूर्णावतार


जो कहना है कहो मगर कान्हा से, बुरा नहीं मानते हमारे माधव


-संत प्रवर विजय कौशल
हमारे समस्त अवतारों में भगवान श्री कृष्ण ऐसे अनोखे अवतार हैं जिनका जन्मोत्सव विश्व के हर कोने में निवास करने वाला हल वर्ग का हिंदू बड़े उत्साह, उल्लास और भाव से मनाता है। भारत में तो जेलों में, थानों में तथा पुलिस लाइनों में इतने उल्लास के साथ मनाते हैं कि ऐसा लगता है कि मानों भगवान श्री कृष्ण इस विभाग के निज देव हों। शास्त्रज्ञ विद्वानों में कई बार इस विषय पर शास्त्रार्थ होता है कि भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण में छोटा बड़ा कौन है। उनकी कलाओं की संख्या पर अनेक तरह की चर्चा होती है। वाद-विवाद होता है। होना भी चाहिए क्योंकि हिंदू समाज जड़ समाज नहीं है। पूर्ण विकसित चिंतन वाला समाज है। अपने भगवान पर खुलकर चर्चा करने की छूट और साहस यह हिंदुओं के पास है। अन्य समाज में तो भगवान के बारे में कुछ बोल पाना महाअपराध माना जाता है। कई बार इनकी चर्चाएं दंगे और अशांति का कारण भी बन जाती हैं। जीवन में आनंद और प्रसन्नता के लिए मनुष्य की चिंतन धारा प्रवाहमान होनी चाहिए। जड़ता मनुष्य को गूढ़ बना देती है। भगवान श्री कृष्ण विचारों की विकास धारा के मूर्तमत प्रतीक हैं। वैसे तो दोनों भगवानों की तुलना करना अविवेक सा लगता है। को बड़ छोट कहत अपराधू लेकिन भगवान श्री कृष्ण पूर्ण इसलिए कहलाए क्योंकि उन्होंने जीवन के समस्त आयामों को पूर्ण रूप से सहजता से स्वीकार किया है। उनके जीवन में जो भी है वह पूर्ण है। वे परम योगी हैं तो परम भोगी भी हैं। उनमें गीता का गंभीर ज्ञान भरा है। तो नृत्य और गायन भी पूर्ण है। वे इधर खेल में हैं तो उधर युद्ध में भी उपस्थित हैं। श्री कृष्ण ने जीवन की समग्रता को स्वीकार भी किया है और उसी को जिया भी है। इसलिए अन्य अवतारों से श्रीकृष्ण भिन्न दिखाई देते हैं। इसी कारण आप देखेंगे कि अन्य अवतारों की पूजा तो होती है। लेकिन भक्ति और उपासना श्री कृष्ण की होती है।
भगवान श्रीकृष्ण की समग्र्रता को आप एक रोचक वार्ता से बहुत अच्छी तरह समझ सकते हैं। एक बार एक विद्यालय मेंं श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर जाना हुआ। सभी विद्यार्थियों को कुछ न कुछ बोलना चाहिए ऐसा सोचकर मैने बच्चों से एक प्रश्न किया। हमने पूछा बोलो- भाई, श्रीराम जी में और श्री कृष्ण जी में क्या अंतर है? कई बच्चों ने वही पुरानी बातें सुना दीं। कि एक में १२ कलाएं हैं और एक में १६ हैं। किसी ने भेष का अंतर बताया तो किसी ने वंशी और धनुष वाण की तुलना की। बहुत बाद में एक और बालक ने जो बात कही वह मुझे बहुत सटीक लगी। और मै समझता हूं कि उस बालक का विषय भले ही शास्त्र की विद्वता के अनुसार न हो लेकिन वह श्री कृष्ण की पूर्णता को बताने के लिए पूर्ण है। उसने कहा कि महाराज जी! भगवान श्री कृष्ण में चार बातें अधिक हैं। हमने पूछा कौन-कौन सी? वह बोला, श्री कृष्ण ने खूब खाया, खूब खेला, खूब गाया और खूब नाचा। भगवान राम के जीवन में ये चारों दिखाई नहीं देती। बात तो यह बालक ने कही है लेकिन यह सत प्रतिशत सटीक है। हम अगर अपना भी जीवन देखें तो हमारे सब के जीवन से लगभग चार बातें गायब हैं। न तो हम खा पाते हैं, न जीवन में गीत है, न जीवन में नृत्य है और न ही हमारा जीवन खेल जैसा उछलता कूदता है। हम सबका जीवन टूटा-टूटा, भारी-भारी, खोया-खोया जैसा है। गीता और संगीत की जगह जीवन में कलह- क्लेश और उदासी भरी है। खाने के नाम पर तो घर खाने के सामानों से भरा है लेकिन जीवन से भूख गायब है। और जो जीवन खेल जैसा हल्का-फुल्का होना चाहिए था वह काम के बोझ से दबा जा रहा है। अगर श्री कृष्ण से मिलना है तो अपने जीवन में ये चारों बातों का समावेश करें।
भगवान श्री कृष्ण के जीवन को देखिए। उनके खाने की बात तो सभी जानते है। माखन मिश्री के वे कितने शौकीन है। अपने घर में तृप्ति नहीं हुई तो पड़ोस का चुराने पहुंच गए। आज भी बिहारी जी में प्रतिदिन छप्पन भोग लगते हंै लेकिन भगवान को कभी ऊब नहीं होती। अब उनके खेल की बात देखिए आपको मालूम है कि भगवान ने जितने भी राक्षस मारे सब खेल खेल में ही मारे। और यह सत्य भी है कि जीवन की दुष्प्रवृत्तियां खेल गए जीवन में ही परास्त की जा सकती है। हमारा तो खेल भी एक काम हो गया है हम हर क्रिया को काम बना देते है इसलिए वह भारी हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण का संपूर्ण जीवन अगर देखें तो दिखाई देता है कि उनके बचपन से ही संघर्ष प्रारंभ हो गया था। लेकिन उस संघर्ष को उन्होंने जीवन के गीत और संगीत के रूप में ही स्वीकार किया है। उनकी मुरली और रास इसका प्रतीक है। जीवन भी एक रास है। और यह रास प्रतिक्षण जीवन में बल रहा है। जीवन के सभी रसों को स्वीकार कर लेना और उसमें भी नृत्य करना यही रास है। हम जीवन केमीठे रस को तो स्वीकार करते है लेकिन कसैले रस को थूकना चाहते है। इसलिए जीवन की पूर्णता और धन्यता का अनुभव नहीं कर पाते। भगवान श्री कृष्ण का जीवन गीतों और गायन से भरा है। गीता जीवन का वह गीत है जो महायुद्ध के मैदान में गाया गया था और आज तक गाया जा रहा है और आगे भी गाया जाता रहेगा। गीता कभी पूर्ण नहीं होगी। लेकिन हमारे जीवन से गीत गायब हो गया। हमारे जीवन से जब भी निकलती है तो गाली और कर्कष वाणी निकलती है। चौथा भगवान का संपूर्ण जीवन नृत्य से भरा हुआ है। भगवार श्रीकृष्ण की जितनी मुद्राऐं आप मंदिरों में देखेगें तो नृत्य की ही देखेगें। श्री कृष्ण नाम आते ही नृत्य ध्यान में आने लगता है। नृत्य उसी के जीवन में प्रकट हो सकता है जिसकेजीवन में शेष ऊपर कहीं गई तीनों बातें हो। आज हमारे जीवन से नृत्य गायब है। हमारे जीवन अनेको विकारों से इतना भारी हो गया है कि नृत्य तो दूर ठीक से जीवन में चल भी नहीं पा रहे है।
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की एक-एक बात अनूठी है। आप सदैव भगवान को किशोर अवस्था में ही देखेगें। कभी उनको दाढ़ी मूंछों में नहीं देखेगें। आखिर क्यों? क्या शरीर का नियम इनकेऊपर लागू नहीं हुआ? ऐसी बात नहीं है। शरीर केनियम तो सबके ऊपर लागू होते हैं लेकिन जो जीवन के समस्त आयामों को खेल के रूप में स्वीकार करते है वे सदैव किशोर और कौमार ही रहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण का समस्त जीवन एक महोत्सव है। महालीला है। इसलिए कृष्ण भक्त भी आपको नाचते गाते मिलेगें। भगवान तो महाभारत के युद्ध को भी जीवन के एक खेल के रूप में ही स्वीकार करते हैं। युद्ध का यह क्षण भी ईश्वर की इच्छा से आया है। इसके स्वीकार करना ही जीव का धर्म है। यही गीता का सार संक्षेप है। निमित्त बनो-कर्ता मत बनो। तब पाप पुण्य से मुक्त हो जाओगे। भगवान कितने युद्ध से निर्लिप्त हैं कि सेना का हर व्यक्ति भगवान के हाथों से मरना चाहता है। इसलिए भगवान के हाथ में जो शस्त्र है उसका नाम सुदर्शन रखा गया है। सुदर्शन मृत्यु का प्रतीक है। अब आप कल्पना करिए कि जिनके हाथ की मृत्यु इतनी सुदंर हो उसके हाथ का जीवन कितना सुंदर होगा।
भगवान के जन्म की घटना भी बड़ी रहस्यपूर्ण है। भादों की गहन अंधकार और बादलों से धिरी काली रात, कंस का कारागार इसमें प्रभु का प्राकट्य हुआ। यह भगवान की कृपा और करूणा का दर्शन है। जीवन में कितना भी गहन अंधकार होख् परिस्थिति कितनी भी विकट और विपरीत हो, संकट के बादल धिरे हों, विपत्ति की कारा में बंद हो लेकिन प्रभु का सुमिरण और भरोसा करोगे तो संपूर्ण विपरीत परिस्थिति में भी प्रभु अपनी उपस्थिति का दर्शन कराते है। श्री कृष्णा जन्माष्टमी हमको निराशा से आशा की ओर, कष्टों से कृपा की ओर ले जाने की प्रेरणा देती है। जीवन को नृत्य, गायन, महोत्सव और महा रास में सराबोर करने का नाम है श्री कृष्ण जन्मोत्सव। यह हमारे जीवन में कितना आया है यह देखने की बात है।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शिव बनो-शिव जपो





परिचय
संत प्रवर विजय कौशल महाराज रामकथा वाचक हैं। उनका मेरे ऊपर अनन्य उपकार है। उनकी सदकृपा से मुझे हनुमानजी के रूप में श्रीगुरु की प्राप्ति हुई। संत विजयकौशल जी की देश-विदेश में श्रीरामकथा की अमृतवाणी गूंजती है। हाल ही में वह श्रीलंका में अशोक वाटिका में श्रीरामकथा का आख्यायन करके आए हैं। सुंदर गेय शैली में श्रीरामकथा का अमृतपान कराने वाले कौशलजी कथा के साथ सामाजिक-राष्ट्रीय संदर्भो की विशद मीमांसा करते हैं। व्रंदावन में आश्रम, निवास और प्रवास। श्रीरामचरितमानस के शिव प्रसंग में पार्वती जी की विदाई के प्रसंग का कारुणिक चित्रण हर आंख को रुला देता है। आप भी पढिए।
सूर्यकांत द्विवेदी


शिव कृपा चाहिए तो जीवन को श्रद्धा से भरिए
-संत प्रवर विजय कौशल
हमारे ऋषि-मुनियों का यह अनुभव है कि इस सृष्टि के प्रारंभ होने के पूर्व भी सर्वत्र शिव तत्व ही व्याप्त था। शिव तत्व से ही सृष्टि उत्पन्न हुई। इसलिए सृष्टि के जन्मदाता का विचार तो हो सकता है, लेकिन शिव तो अजन्मा हैं, शिव तो अविनाशी हैं, अखंड हैं। वे तो स्वयं मृत्यु के स्वामी हैं, संहार के देवता हैं। अरे! संहारक का कौन संहार करेगा। भगवान शिव तो जीवन और मृत्यु दोनों के साक्षी हैं।
हमारे यहां देवाओं को अवतारों के रूप में पूजा जाता है। उनकी जयंतियां मनाई जाती हैं। उनके माता-पिता का स्मरण कर उनकी गाथाएं गाई जाती हैं। लेकिन, भगवान शिव तो स्वयंभू हैं। उनके न माता-पिता हैं और न जन्मतिथि। स्वयंभू ही शंभु के रूप में पूज्य हुए हैं।
हम ऐसा मानते हैं कि संपूर्ण सृष्टि राममय है। अत: हरिकथा या रामकथा सृष्टि की ही जीवन कथा है। अथवा तो काल, कर्म, गुणा, ज्ञान और स्वभाव के समग्रता से युक्त जेड चेतन की जीवन कथा है, हरिकथा है। और यह कथा अनंत बार भगवान शिव से ही प्रकट हुई है ''शंभु कीन्ह यह चरित सुहावा।। ÓÓ
भगवान शिव श्रद्धा और विश्वास के समग्र रूप हैं। एक व्यक्ति के जीवन पर भी विचार करें, तो जीवन को कोई भी क्रिया तभी प्रारंभ होती है, जब व्यक्ति में विश्वास और श्रद्धा का भाव होता है। दोनों में से एक का भी अभाव होने पर क्रिया नहीं हो सकती। भगवान शिव पूर्ण विश्वास हैं। कहते हैं कि जो टूट जाए वह स्वास है और जो कभी न टूटे वह विश्वास है। विश्वास जीवन है, अविश्वास मृत्यु है। हमारे शिव सदैव वटवृक्ष की छाया में ही बैठते हैं। वटवृक्ष भी विश्वास है वट विश्वास अचल नहीं धर्मा। वटवृक्ष और पर्वत दोनों ही अटल हैं, अमर हैं, अनंत हैं और स्थिर हैं। दोनों ही विश्राम और जीवन प्रदान करते हैं।
भगवान शिव को सभी भोला कहकर पुकारते हैं। इसका कारण यह है कि विश्वास सदैव भोला होता है। इसमें कोई छल या दिखावा नहीं होता। अविश्वासी व्यक्ति संशयालु होता है। अंदर से बहुत कमजोर होता है। इसी के कारण वह छल कपट करता है। कुछ छिपाता है-कुछ दिखाता है। भगवान शिव सदैव सहज रहते हैं, इसलिए शांत रहते हैं। धरे शरीर शांत रस जैसे।
भगवान शिव का साक्षात्कार करने के लिए एक बार ठीक से उनके स्वरूप का दर्शन करें--
''जटा मुकुट सुरसरित सिर-लोचन नलिन विशाल।
नीलकंठ लावण्यनिधि-सोह बाल विधु भाल।ÓÓ
एकदम पूर्ण और निष्काम का इससे अधिक सुंदर चित्रण नहीं हो सकता।
जटा मुकुट-सभी लोग स्वर्ण मुकुट चाहते हैं। मुकुट प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जटाएं झंझट-जंजाल और क्लेशों की प्रतीक है। शिव ने सृष्टि के संपूर्ण जंजालों को भी अपने शीश पर प्रतिष्ठित कर लिया है। झंझटों को भी शोभा का रूप दे दिया है। हम जहां तहां झंझटों की जटाएं खोलकर बैठ जाते हैं। जब देखो तब झंझटों का ही रोना है। शिव इन झंझटों को भी आभूषण के रूप में स्वीकार करते है, इसलिए सदा शांत रहते हैं।
सुरसरित सिर-शिव के शांत रहने का यह भी कारण है कि इनके शीश पर श्री गंगाजी हैं। श्रीगंगाजी उज्जवलता, धवलता और शीतलता के सतत प्रवाह की प्रतीक हैं। निर्मलता और पवित्रता श्रीगंगाजी का गुण हैं। जिसके विचारों में गंगा जैसे गुण होंगे वह सदैव शांत और प्रवाहवान रहेगा।
हमारेविचार गदले और जड़ है इसलिए सदा अशांत ही रहते है।
शिव का तीसरा गुण है- ''लोचन नलिन विशालÓÓ- भगवान शिव के नेत्र निर्लिप्त हैं, सुंदर हैं और विशाल हैं। दृष्टि और दृष्टिकोण जितना विशाल होंगे उतना ही मनुष्य शांत और आनंदित रहेगा। आज संकुचित दृष्टि ने मनुष्य को अशांत कर दिया है। दृष्टि नलिन चाहिए। हमारी दृष्टि लिप्त और दूषित हो गई है। दृष्टि समन्यवशील व संतुलित चाहिए।
नीलकंठ- जगत के संपूर्ण विष को अपने कंठ में ही समा लेता है। न तो सटकता है और न ही उगलता है वही शिव है। विषैली बातों को पेट में गांठ बांधकर भी मत रखिए और बोलिए भी मत। अन्यथा संघर्ष और अशांति बनी रहेगी। शिव विष पीकर भी कंठ से जगत को सदैव श्रीराम कथा का अमृत प्रदान करते हैं ''हरषि सुधा सम गिरा उचारीÓÓ
जो इतने गुण धारण कर लेता है वह स्वयं ही लावन्य निधि हो जाता है। सोह बाल विधु भाल का अर्थ है चंद्र जैसे शीतल,निर्मल, उज्जवल विचारों वाले मन को अपने शीष पर प्रतिष्ठा देते हैं केवल चंद्रमा ही को क्यों वे तो नागों को, भूत प्रेतों को भी आदत सहित स्वीकार करते है। जो सभी को स्वीकार करता है वही शिव है, वही कल्याणकारी है। जीवन जीने की कला सीखने के लिए शिवजी के स्वरुप को ग्रहण करना आवश्यक है। शिव सदैव श्मशान में विचरण और नंदी की सवारी करते हंै। श्मशान मृत्यु की याद दिलाता है जो प्रतिदिन मृत्यु को याद रखेगा वह अनेकानेक प्रकार केपापों से बच जायेगा। व्यक्ति पाप करता ही तब है जब वह मान लेता है कि मैं कभी मरने वाला नहीं हूं। मौत पड़ोसी को तो जानती है लेकिन मेरा घर उसे मालूम नहीं है। शिव कहते हैं कि भैया भले ही श्मशान में मत रहो पर सदा श्मशान को याद रखो कि एक दिन यहां भी आना है। इसी के साथ भगवान शिव सदैव नंदी की सवारी करते हैं। नंदी धर्म का प्रतीक है। सदैव धर्म के वाहन पर चलोगे तो जीवन यात्रा सुखद और आनंदमय होगी। हम धर्म की चर्चा तो बहुत करते है लेकिन धर्म पर चलते नहीं हैं। यही चाहते हैं कि दूसरे सभी धर्म पर चलें। मेरा तो यही मार्ग ठीक है। धर्म पर चलने का उपदेश मत करिए अपितु दस पांच कदम चलिए। शिव की कृपा चाहिए तो जीवन को श्रद्धा से भरिये और भगवान श्रीराम की कृपा चाहिए तो जीवन शिव से भरिये। भगवान ने सभी को चेतावनी केस्वर में कहा है-'' शिव पद कमल जिन्हहिं रति नाहीं- रामहि ते सपनेहु न सोहाहीं।।ÓÓ
श्रीनारदजी को तो भगवान ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कह दिया है-
''जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी- सो न पाव मुनि भगति हमारीÓÓ
निष्कर्ष यही है कि प्रभु की कृपा चाहिए तो शिव कृपा प्राप्त करें और शिव कृपा प्राप्त करनी हो तो सहज बनें, सरल बनें, भोले बनें। भोले को तो भोलेबाबा पसंद करते है। जो जितना भोला हो जाएगा वह उतना ही बम के समान विस्फोटक बन जायेगा और अपने जीवन के संपूर्ण दुर्गणों को नष्ट कर देगा। भोले बम-बम-बम का यही सार्थक अर्थ है।




सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

जप लो हरि का नांम





कैसे करें आप देव पूजार्चन
पूजा का अर्थ है समर्पण। समर्पण का नाम ही आस्था है। आस्तिकता कर्मकांड में नहीं है। भगवान के प्रति समर्पण और भाव में है। अक्सर लोग, कर्मकांड और पूजा विधान को एकही मान लेते हैं। भगवान की भक्ति के लिए मन, वचन और कर्म की प्रधानता चाहिए। भक्ति के तत्व दस हैैं। इसमें वही सभी तत्व हैं जो धर्म में हैं। दशो महाविद्या की सार भी धर्म में ही है। धर्म में ही जीवन की कुंजी है। धर्म में ही जीवन को जीने का मर्म छिपा है। बहुभाषी और बहुदेवतावादी समाज में अक्सर यह प्रश्न रहता है कि हम किसकी आराधना करें और कितनी देर करें। कर्मकांड पर जाएं तो लंबे-चौड़े विधान हैं। लेकिन सनातन व्यवस्था में ध्यान को महत्व दिया गया है, कर्म को महत्व दिया गया है, भाव को महत्व दिया गया है। वाणी यदि दूषित हो तो राम-राम जपने का लाभ नहीं। कर्म यदि दूसरे को पीड़ा पहुंचाने वाले हों तो घंटों पूजा में बैठने का कोई अर्थ नहीं। गोस्वामी तुलसीदास ने परहित को ही धर्म की संज्ञा कहा है।
आज के आपाधापी और व्यस्तता भरे जीवन में बहुत से लोगों को यही कहते सुना जाता है कि पूजा में समय बहुत लग जाता है। कई लोगों के विधान टूट जाते हैं, संकल्प पूरे नहीं होते। मन में एक पीड़ा होती है कि हम आज यह नहीं कर पाए-वह नहीं कर पाए? महिलाओं को तो इस स्थिति का अधिक ही सामना करना पड़ता है। कामकाजी महिलाएं और भी परेशानियां उठाती हैं। घर की बुजुर्ग महिलाओं का तो पूजा-पाठ हो भी जाता है, लेकिन घर और दफ्तर संभालती महिलाएं क्या करें? कमोवेश, यही हाल पुरुषों का भी है। सुलभता के लिए हम संक्षिप्त पूजा विधान दे रहे हैं--
किन देवों की करें पूजा

1. गणपति
2. भगवान शंकर
3. दुर्गा
4. भगवान राम
5. भगवान श्रीकृष्ण
6. हनुमान जी
इष्ट देव: हर व्यक्ति की राशि में कोई न कोई इष्ट देव होता है, इसलिए हमको उन्हीं इष्ट की पूजा करनी प्रमुखता से करनी चाहिए।
पूजा स्थान: पूजा स्थान पर एक देव की एक ही प्रतिमा होनी चाहिए।
फलित: जिस तिथि का आपका जन्म है, उसी तिथि के मुताबिक हमको पूजा करनी चाहिए। उदाहरण के लिए यदि आपका त्र्योदशी को हुआ है तो आपको भगवान शंकर की पूजा अधिक फल देगी। यदि आपका अष्टमी या नवमी को हुआ है तो आपके लिए महागौरी और लक्ष्मी जी की पूजा कल्याणकारी होगी। चतुर्थी तिथि पर भगवान गणपति और पूर्णिमा या एकादशी के जन्म पर भगवान विष्णु की पूजा सार्थक रहेगी। सप्तमी के दिन पैदा होने वाले जातकों के लिए सात बार जाप करना फल प्रदान करेगा। काली जी की पूजा उनको फल प्रदान करेगी।
सरल उपासना
भगवान गणपति
देवों के अग्रणी देव गणपति ऋद्धि-सिद्धि के देव हैं। देव पूजा में उनका अग्रणी स्थान है। गणपति की पूजा के लिए आप गणेश चालीसा या केवल पांच बार ऊं गणपतये नम: या गं गणपति नम: का जाप कर सकते हैं। गणपति मोदक प्रिय हैं। समय मिले तो प्रतिदिन अन्यथा बुधवार को मोदक का भोग लगा सकते हैं। इसके अतिरिक्त कोढियों को दान देने, दीन-दुखियों की मदद करने और चंद्रमा को अघ्र्य देने से भी गणपति प्रसन्न होते हैं।
ऊं गं गणपतये नम:
भगवान शंकर
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भगवान शंकर की पूजा सर्वाधिक सरल है। शंकर जी को जिस रूप में आप पूजना चाहें, पूज सकते हैं। वह रुद्र हैं। गृहस्थ लोगों के लिए गौरीशंकर की पूजा ïिवशेष फल प्रदान करती है। सोमवार का व्रत, त्रयोदशी का फल भी कारक रहता है। शंकर जी प्रतिदिन ग्यारह बार जल की धारा अर्पण करने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। मंदिर में ग्यारह लोटे जल और काले तिलों के समर्पण करने से वह विपरीत ग्रहों की चाल बदल देते हैं। एक माला ऊं नम: शिवाय की जपने से ही सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। व्रत इतना सरल है कि तीसरे प्रहर आप व्रत का परायण कर सकते हैं। शंकर को भजो, सारे काम पूरे। चाहे पांच, सात या ग्यारह बार ऊं नम: कहो या बोलचाल में या माला लेकर। शंकर जी की पूजा के लिए आवश्यक नही कि आप धुनी जमाकर बैठें। पवित्रावस्था के किसी भी क्षण आप उनका ध्यान, मनन और अर्चन कर सकते हैं। महामृत्युंजय मंत्र तीन और सात बार पढऩे से ही सारे कष्टï मिट जाते हैं। गृहस्थवानों के लिए शिव परिवार की पूजा ही संपूर्ण है।
ऊं नम: शिवाय
महामृत्युंजय मंत्र
शिव चालीसा
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दुर्गा जी
जो जातक देवी उपासक हैं, उनको अकेले देवी की आराधना नहीं करनी चाहिए। उनके लिए आवश्यक है कि वह पहले गणपति, शंकर और तदुपरांत दुर्गा जी की आराधना करें। दुर्गा जी के बाद भैरव और हनुमान जी की पूजा करें। यदि दुर्गा के पार्वती स्वरूप की पूजा करते हैं तो उसमें समस्त देवियों की पूजा अपने आप ही निहित हो जाती है। इसके लिए अच्छा यह होगा कि आप शिव परिवार की आराधना करें। समस्त पूजा का लाभ। देवी पूजा केविधान सख्त हैं। इसमें त्रुटि नहीं होनी चाहिए। मंत्रों का उच्चारण भी शुद्ध होना चाहिए। मां भगवती के रौद्र रूप से अधिक गौरी, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा श्रेयस्कर है। लक्ष्मी जी की पूजा अकेले नहीं करनी चाहिए। गौरी की पूजा शंकर जी केसाथ और लक्ष्मी जी की पूजा भगवान विष्णु के साथ करनी चाहिए। काली जी की पूजा भी भगवान शंकर के रुद्रावतार के साथ करनी चाहिए। अज्ञानता से तंत्र विद्या न करें। दुर्गा जी को प्रसन्न करने के लिए आप कर सकते हैं--
-श्री दुर्गा चालीसा
-देवी कवच, अर्गलास्तोत्रम, कीलक, देवी सूक्तम और सिद्ध कुंजिका स्तोत्र।
-अकेले देवी सूक्तम, दुर्गा चालीसा और सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम का पाठ भी आप कर सकते हैं।
-समयाभाव में आप केवल सात बार या तीन बार ऊं ऐं ह्रïीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे का जाप कर लें। दुर्गा पूजा संपूर्ण।
-करोतु सा न शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राणी भिहन्तु चापदा।
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भगवान विष्णु, श्रीराम और श्रीकृष्ण
यदि आप भगवान विष्णु के उपासक हैं तो आपके लिए भगवान राम और श्रीकृष्ण की अलग-अलग आराधना करने की आवश्यकता नहीं है। भगवान विष्णु की पूजा के लिए पूर्णिमा का व्रत विशेष फलकारी है। श्री गोविंदाय नम: माधवाय नम: केशवाय नम: का ग्यारह बार या एक माला का जाप कर सकते हैं। ऊं नमो भगवते वासुदेवाय नम: को पांच या ग्यारह बार पढ़ लें। भगवान विष्णु के साथ ही यदि आप राम और श्रीकृष्ण की भी पूजा करना चाहते हैं तो सुंदरकांड की पांचवी चौपाई पढ़ें या कहेऊ तात अस मोर प्रनामा, सब प्रकार प्रभु पूरन कामा, दीनदयाल विरदु समभारी, हरेऊ नाथ मम संकट भारी पढ़ लें। इसके अतिरिक्त विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ भी आपके मनोरथ पूर्ण करेगा। भगवान विष्णु जी की पूजा से पहले गणपति का ध्यान अवश्य करें।
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लड्डïू गोपाल
यदि आपकी पूजा में लड्डïू गोपाल या बांसुरी बजाते श्रीगोपाल की प्रतिमा विराजमान है तो आपको समस्त नियमों का पालन करना होगा। मुख्य नियम इस प्रकार हैं
-प्रतिदिन भगवान को स्नान कराना चाहिए।
-उनको मिश्री या माखन का भोग लगाना होगा।
-जिस पूजा में लड्डïू गोपाल होंगे, वह कमरा बंद नहीं होगा।
-आप यदि बाहर जा रहे हैं और घर में कोई दूसरा पूजा-पाठ करने वाला नहीं है तो आपका दायित्व है कि आप भगवान का सिंहासन अपने साथ ले जाएं।
(जिस प्रकार हम बच्चों को घर में अकेला नहीं छोड़ते, उसी प्रकार हम लड्डïू गोपाल जी को भी अकेला नहंीं छोड़ सकते। भगवान भाव के प्रेमी हैं। जिस भाव से उनको पूजो।)
-भगवान का प्रतिदिन स्नान, श्रृंगार, पूजन, अर्चन, भोग और शयन कराना चाहिए।
-तामसिक पदार्थों का त्याग करना चाहिए।
-मोर का पंख और श्रीमदगीता पूजा स्थल पर अवश्य होनी चाहिए।
-यही नियम समस्त पीतल के श्रीविग्रहों के लिए है। इनका भी प्रतिदिन स्नान, भोग, आरती और शयन करना चाहिए।
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श्री हनुमान
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हनुमान जी की पूजा के नियम भी दुष्कर हैं। इसलिए भगवान शंकर के ग्यारहवें रुद्रावतार के रूप में उनकी पूजा करना श्रेयस्कर है। या गुरू के रूप में। बाला जी और प्रेतराज सरकार की पूजा करने वालों के लिए प्रतिदिन महावीर सिंदूर लगाना अच्छे फल प्रदान करता है। हनुमान जी की पूजा अकेले नहीं करनी चाहिए। पहले भगवान राम का माता जानकी सहित स्तवन करना चाहिए।
इनकी पूजा की सरल विधि इस प्रकार है--
-हनुमान चालीसा
(यह संपूर्ण पूजा है)
-सुंदरकांड का मंगलाचरण
-संकट कटे मिटे सब पीरा, जो सुमिरे हनुमत बलबीरा
-जय-जय-जय हनुमान गुसाई, कृपा करो गुरू देव की नाई
(इन दोनों चौपाइयों का पांच बार जाप कर लें। चौबीस घंटे में यदि ग्यारह बार हनुमान चालीसा का पाठ कर लें तो सारे मनोरथ पूर्ण।
-हनुमान जी की पूजा में स्वच्छता और ब्रह्मïचर्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
-प्रति मंगलवार को प्रशाद और बंदरों चने या केले खिलाने चाहिए।
-रात में बजरंगबाण का पाठ करके शयन करें तो श्रेयस्कर।
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पूजा क्रम
1. गणपति, 2. शंकर 3. विष्णु, राम या कृष्ण 4. दुर्गा 5. हनुमान (इसके बाद श्रद्धानुसार भैरव और साईंनाथ की पूजा करनी चाहिए। )
आरती
आरती अलग-अलग करने की आवश्यकता नहीं है। आप गणपति के बाद ऊं जय जगदीश हरे की आरती कर लें। यह समस्त देवों की आरती है।
-जो साधक इष्टï देव के आधार पर केवल एक ही देव की पूजा करते हों, उनके लिए भी पहले गणपति की आरती अनिवार्य है।
-सूर्यकांत द्विवेदी

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

शनि कठोर शासक-उदार देवता


शनि महाराज कठोर नहीं हैं
भय की उत्पत्ति कैसे हुई? भय का कारक मन है। मन चंचल है। शंकालु है। भय के बिना प्रीति नहीं होती। यदि कहें कि ईश्वर नहीं है। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। तुम नहीं मरोगे। घर में क्लेश नहीं होगा। धन-धान्य के साथ तुम सदा ही सुख शांति से जीवन व्यतीत करोगे। तो शायद कोई भी ईश्वर की शरण में न जाए। लेकिन यह कपोलकल्पित अवधारणा होगी। जो शाश्वत है, उसको स्वीकारना होगा। सत्य है कि जो आया है, वह जाएगा भी। इसी प्रकार यह भी सत्य है कि लोक-प्रशासन फूलों से नहीं चला करता। अगर फूलों से चला होता तो दंड की आवश्यकता ही नहीं होती। न अदालतें होतीं, न सामाजिक पंचायतें होतीं, न कानून होता, न जेल होती और न होती पुलिस-सेना। यानि सत्ता-प्रशासन के लिए दंड को प्रबल माना गया। संभवतया यही कारण रहा होगा कि दंड (लाठी-डंडा-स्टिक-शस्त्र-अस्त्र) राजा-महाराजा से लेकर पुलिस और सेना तक आजतक है। किसी भी सैन्य और पुलिसकर्मी की पहचान उसके दंड से है। राजा की भी पहचान दंड से है। सत्ता की पहचान भी दंड से है। देश की पहचान वहां की सामाजिक व्यवस्था और दंड विधान से है। हर देश की दंड संहिता है। ऐसे में यदि तीनों लोकों की दंड संहिता शनिदेव के पास है, तो वह क्रूर कैसे हुए?
एक बार लक्ष्मी जी ने यही सवाल शनि देव से किया। लक्ष्मी जी ने पूछा-शनिदेव, आपको लोग क्रूर कहते हैं? कहते हैं कि आप किसी के साथ भी रियायत नहीं करते। ऐसा क्यों है? शनिदेव ने कहा कि मुझको तीनों लोकों का दंडाधिकारी बनाया गया है। मैंं ही रियायत करने लगा तो प्रशासन कैसे चलेगा। लक्ष्मी जी बोली-मृत्युलोक तो ठीक है, लेकिन तुम तो देवताओं पर भी कृपा नहीं करते। शनिजी ने प्रत्युत्तर दिया-मृत्युलोक से अधिक दंड का प्रावधान तो देवलोक में होना चाहिए।
शनि महाराज दंडाधिकारी तो हैं लेकिन क्रूर शासक नहीं। दुर्भाग्यवश, उनको आज क्रूर शासक कहकर प्रचारित किया जाता है। क्रूर शासक कभी भी अत्याचारी, अनाचारी, पापियों को सजा नहीं देता। वह स्वयं ही गलत होता है तो वह गलत लोगों को ही प्रश्रय देता है। लेकिन शनि महाराज तो ऐसे नहीं हैं? वह तो गलत चीज को सहन ही नहीं करते। वह अनाचारी और पापियों को सजा देते हैं। दंड तो उन्होंने सभी को दिया। देवताओं को भी दिया। शंकर जी के वह प्रिय हैं, लेकिन शंकर जी भी शनि महाराज से नहीं बच सके। राजा दशरथ भी नहीं बच सके। रावण और कंस को भी नहीं बख्शा। कहते हैं, शनि और राहू की युति से ही भगवान श्रीकृष्ण किसी एक स्थान पर नहीं रहे, उनको विचरण करना पड़ा। शनिजी के चरित का एक ही सार है-परहित सरिस धर्म नहीं भाई। परहित करने वाले से वह प्रसन्न होते हैं। परपीड़ा सहन नहीं। राजा हो या दंडाधिकारी-उसका चरित्र ऐसा ही होना चाहिए। धर्म की तीसरी अवधारणा ही दंड है। भाव यह है कि दंड बिना धर्म की भी रक्षा नहीं होती।

शनि के स्वभाव
शनि महाराज सूर्य के पुत्र हैं। सूर्य से इनकी पटती नही है। खगोलीय हिसाब से भी देखें तो इन दोनों (पिता-पुत्र) ग्रहों के बीच बहुत दूरी (८८ करोड़ 61 लाख मील) है। एक पूरब तो एक पश्चिम। इनका रंग काला और दिन शनिवार है। इसकी गति बेहद मंद है। इस कारण समस्त काम मंद गति से ही पूरे होते हैं। बनते-बनते काम बिगड़ जाते हैं। अनावश्यक भय और शत्रु पीड़ा होती है। जमीन-जायदाद के झगड़े, व्यापार में नुकसान, विवाह में अड़चन और प्राकृतिक आपदा होती है। शारीरिक कष्टï खासतौर पर हड्डिïयों से संबंधित रोग होते हैं।
शनि करे सबकी खैर
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आजकल, शनिदेव को लेकर कई भ्रांतियां हैं। लगता है, मानो शनि सबका काम बिगाडऩे के लिए ही हैं। शनि से भयभीत लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है। शनि किसी को भयभीत करने के लिए नहीं है। भय तो जातक के अंतर मेंं है। उससे बेहतर कौन जान सकता है कि उसके कर्म क्या हैं? वह लोगों को धोखा दे रहा है या अपना हित साध रहा है। स्वार्थी, परपीड़क, भोगी-विलासी, क्रूर, अनाचारी पर अंकुश रखते हैं शनिदेव। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तीनों के केंद्र में रहने वाले शनि देव मुख्यतया प्रकृति और प्रवृत्ति के देवग्रह हैं। फिर चाहे, वह समाज हो या व्यवस्था। वह संतुलन के देव हैं। नेतृत्व करने वाले, समायोजक और दंडाधिकारी। इसको इस प्रकार भी कह सकते हैं कि वह सुुप्रीम कोर्ट है। जिस प्रकार सर्वोच्च अदालत विधि संहिता का पालन करते हुए गुण-दोष की विवेचना करते हुए अपना फैसला सुनाती है और दंड निर्धारित करती है, उसी प्रकार शनि देव की अदालत है। किसी के साथ रियायत नहीं। राजा हो या रंक।

शनि देव के उपाय
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-शनि देव को प्रसन्न करने के लिए शनि, काली, भैरव, भगवान शंकर और हनुमानजी की पूजा करें।
(ये समस्त देव कल्याण, मोक्ष और संकटमोचक हैं। आपकी पैरवी करने वाले वकील जानिए। )
-प्रति शनिवार कांसे की कटोरी में सरसो का तेल डालकर उसमें अपनी छवि देखकर छाया दान करें।
(भाव यह हैकि अपना चेहरा देख लीजिए, कैसे हैं आप? याचना करिए, शनिमहाराज,मेरे पापों को दूर करो।)
पीपल के वृक्ष पर सरसो के तेल का दीपक जलाएं।
(यह मोक्ष का आधार है। पीपल में ब्रह्मा, विष्णु और महेश का वास है। जीवन की तीन अवस्था और त्रिदेव।)
-पीपल पर ग्यारह लोटे जल चढ़ाएं।
-शनिवार का व्रत करें। लोहे का छल्ला पहनें।
-शनि चालीसा, शनि कवच और सुंदरकांड का पाठ करें।
-शनि की काले तिलों और गुड़ से पूजन करें।
मंत्र:
-ऊं शं शनिश्चराय नम:
-ऊं प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम:।
शनि
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-पृथ्वी से शनि की दूरी ७१ करोड़ ३१ लाख ४३ हजार मील है।
-शनि का व्यास ७५ हजार १०० मील है।
-यह छह मील प्रति सेकेंड की गति से २१ साल में सूर्य की परिक्रमा करता है। (इसलिए रिजल्ट भी देरी से आते हैं।)
-शनि के चारों ओर सात वलय और १५ चंद्रमा हैं।
-सूर्यकांत द्विवेदी

शनिवार, 30 जनवरी 2010

ठाकुर जी के नाम पाती


ठाकुरजी
जो पाती मैं लिख रहा हूं, वह न जाने कितने लोग लिखने का प्रयास करते होंगे। कितनों ने लिखी भी होगी। अंतस की आवाज से। दिल की कलम से। आंखों की स्याही से। मेरी पाती तो मेरी है। सबकी अपनी पाती होती है। मेरी भी अपनी पाती है। जीवन में आपसे अलग रहा। भटका रहा। नाम सुना था, लेकिन अब आपका ही नाम है। रामनाम को महामंत्र कहा गया है। रामनाम को मोक्ष का द्वार कहते हैं। तुम तो आदि-अनंत हो। क्या जीवन में आदि और अंत होता है। संघर्षों की भट्टी में जब तपकर जीवन को तलाशने की कोशिश करता हूं तो आपका हंसता-मुस्कराता चेहरा सामने आ जाता है। लड्डू खाते हुए। माखन खाते हुए। घुटनों के बल चलते हुए। दुख टूटते हैं तो कुंती का महावाक्य याद आ जाता है-प्रभु मुझको सुख मत देना। मैं तुमसे दुख मांगती हूं।दुख होगा तो आपका सानिध्य मुझको प्राप्त होता रहेगा। ठाकुरजी, मैं कुंती नहीं हूं। कुंती जीवन नहीं हो सकता। वह तो तप और साधना का जीवन है। न हम अर्जुन बन सकते हैं और न कुंती। हम तो आपके द्वारा दिए गए शरीर की आयु पूरी कर रहे हैं। हम महामानव नहीं। हम देव नहीं। हम असुर नहीं। हम क्या हैं, यह हम को भी नहीं पता। आपको तो सब पता होगा। हम क्या हैं और क्यों। फिर, मेरे माधव। हमारा उद्धार क्यों नहीं। क्या यही जीवन है। क्या सुख और शांति ईशातीत विषय है। अगर नहीं तो ठाकुर जी, आप सुनते क्यों नहीं। करुण पुकार। अपनों की पुकार। हम उस परमेश्वर, जगदीश्वर, अनंत, अलौकिक, अप्रमेय, अनंत ब्रह्मांड की सत्ता से मांग रहे हैं जो सबको देता है। जो सबकी सुनता है। हे ईश्वर, हमको विषय विकारों से बाहर निकालो। हमको मोक्ष प्रदान करो। हमको जीवन की वास्तविक संगीत सुना दो। हमको जीवन का राग सुना दो। हमको बासुरी की वह तान चाहिए जो अपनों को गले लगा दे। हमको वह मधुर संगीत चाहिए, जो जग को रोशनी दिखा दे। राग, रंग और उमंग। इस संसार को देखें। यह, अभिमानी और अपने में खोयी हुई दुनिया है। इसके कल का भरोसा नहीं, आज का भरोसा नहीं, एक क्षण का भरोसा नहीं। लेकिन हर कोई एक दूसरे को देखने का दंभ ठोकता है। अशांति की राह पर पूरा विश्व है। तुम तो विश्वेश्वर हो। तुम क्या नहीं कर सकते। सबकुछ कर सकते हो। मेरी सुनो। पुकार सुनो। मैं शरणागत हूं। मुझे अपनी शरण में लो माधव। अपने चरणों में स्थान दे दो माधव। श्री हरि मेरा जीवन हो जाए। श्रीहरि मेरे प्राण बन जाएं। मैं तुम्हारा हो जाऊं। तुम मेरे हो जाओ।