मंगलवार, 26 जुलाई 2011

निराला भोला



श्रावण मास भगवान शंकर को समर्पित है। हर तरफ भोले हैं। शिव के मतवाले हैं। कांवड़ ही कांवड़। गंगाजल की यात्रा। गंगाधर का गान। मानो. शंकर जी की बारात चढ़ रही है। वस्तुत: यह शंकर जी के पाणिग्रहण का ही उत्सव है। श्रावण मास की शिवरात्रि भगवान शंकर और पार्वती के मिलन का उत्सव है। फाल्गुन मास की शिवरात्रि ही महाशिवरात्रि कही गई। महाशिवरात्रि निराकार भक्ति का पर्व है तो शिवरात्रि साकार भक्ति का पर्व।
एको हि रुद्रो द्वितीयानस्तु..। एक ही रुद्र है दूसरा नहीं है। यह भारतीय सनातन परंपरा में एकेश्वरवाद के सिद्धांत का निष्पादन करती है। हम बहुदेववादी माने जाते हैं। निराकारत्व की बात हम नहीं करते। लेकिन शंकर जी के सत्यं, शिवम् और सुंदरम् का संदेश ही इस एकेश्वरवाद में निहित है। सत्य क्या है...सृजन-संहार। शिवम क्या है...संतान और सुंदरम क्या है....सृष्टि। इन्हीं तीनों के निहितार्थ बना ऊं। अ+उ+म। अकार, उकार और मकार। यानी सृष्टि, पालन और संहार। यही सनातन सत्य है और इसी को हम यह कहकर अंगीकार करते हैं कि सबको पैदा करने वाला, पालन करने वाला और संहार करने वाला तो परमपिता परमेश्वर है। फाल्गुन मास की महाशिवरात्रि यह बताने के लिए है कि जो आया है, वह जाएगा भी। अपने को अजेय मत मानो। एक ही तत्व की ही प्रधानता...कहो उसे जड़ या चेतन।
भगवान शंकर अकेले ऐसे इष्ट हैं जो साकार और निराकार दोनों हैं। गंगाजल तो शिवलिंग पर ही अर्पण होगा। श्रीविग्रहों का तो मात्र दर्शन होगा। अस्तु, साकार भक्ति के साथ निराकारत्व ही भगवान शंकर की अर्चना है।
अब बात करते हैं सावन की शिवरात्रि की। एक असुर था नरकासुर। उसने घोर तप करके ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त कर लिया कि उसका अंत होगा तो केवल शंकर जी के शुक्र से उत्पन्न पुत्र द्वारा। अन्यथा नहीं। उसने सोचा कि न शंकर जी विवाह करेंगे और न उनके पुत्र होगा और न उसका अंत होगा। वरदान प्राप्त करके नरकासुर ने उत्पात मचाना शुरु कर दिया। शंकर जी को जैसे-तैसे विवाह के लिए राजी किया। शंकर जी विवाह के लिए चले। उनका आलोकिक श्रृंगार हुआ....शिवहिं शंभु गन करहिं श्रृंगारा, जटामुकुट अहि मोर संवारा..। क्या बारात थी। क्या श्रृंगार था। मतवालों की टोली। कोउ मुख हीन, विपुल मुख काहू। किसी के मुंह नहीं तो किसी का बड़ा मुख। अद्भुत और अचंभित बारात। बारात जब उमा के घर पहुंची और उनकी मां मैना आरती करने आई तो देखती की देखती रह गई। सांप ने फुंकार मारी और आरती का थाल नीचे गिर गया।
प्रसंगानुसार भगवान शंकर और पार्वती का मांगलिक मिलन हुआ। इस मिलन से कार्तिकेय पैदा हुए और उन्होंने तारकासुर का वध किया। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि दोनों का ही संदेश एक है...जो आया है, वह जाएगा भी। जब तारकासुर जैसा चला गया तो बाकी की क्या बिसात? लेकिन शिवरात्रि कुछ हटकर आनंदोत्सव है। गंगाधर की बारात का उत्सव। सो, जैसी शंकर जी की बारात रही होगी, वैसी ही बारात कांवड़ यात्रा के दौरान देखने को मिलती है। कांवडिय़ों के अलग और अनोखे रंग।
खड़ी कांवड़ से बाइकर्स बाराती तक
गोमुख, गंगोत्री और हरिद्वार से ग्ंगाजल लेकर आने वाले कांवडिय़ों के भी कई रूप हैं। अस्सी और नब्बे के दशक में खड़ी कांवड़ (जिसको रखा नहीं जा सकता) का प्रचलन अधिक था। अब खड़ी कांवड़ कम हो गई हैं। इनके स्थान पर झूला कांवड़ और डाक कांवड़ बढ़ गई हैं। हर साल इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। जैसा जमाने का रंग बदला, वैसा ही कांवड़ का भी रंग बदल गया। अब से पन्द्रह साल पहले न तो दिल्ली-देहरादून राजमार्ग को बंद करने की नौबत आती थी और न आज जैसे कैंप लगते थे। लेकिन अब तो....?
बाईक, वैन, कारों और झांकियों के साथ भगवान शंकर का यह कारवां उल्लास, भक्ति और सावन की मस्ती का संगम है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक करीब एक करोड़ कांवडिय़ा हरिद्वार से गंगाजल लेकर निकलता है। इसमें से अस्सी फीसदी कांवड़ पुरेश्वरमहादेव (बागपत), बाबा औघडऩाथ (मेरठ) और दूधेश्वरनाथ (गाजियाबाद) में चढ़ती हैं।
तप से पश्चाताप
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श्रद्धा और विश्वास के इस पर्व में तप से पश्चाताप की कहानी है।
-सती ने पश्चाताप किया कि उन्होंने शंकर जी के आदेशों की अवहेलना क्यों की? वह अपर्णा बनीं। और पार्वती के रूप में जन्म लेकर उनको शंकर जी के रूप में वर प्राप्त हुए। पार्वती के बाद देवी का कोई अवतरण नहींं हुआ। यानी सती जन्म से उन्होंने सीख ली।
-ब्रह्मा जी को सीख मिली कि सोच-विचार कर वरदान देना चाहिए। भले ही कोई तप करे, लेकिन फलित अवश्य देख लेना चाहिए।
-कांवड़ यात्रा के जनक भगवान परशुराम ने भी पश्चातापवश कांवड़ उठाई थी। इसी का विराट स्वरूप आज का कांवड़-कुंभ है।
-निराकार और साकार एक ही ब्रह्म का नाम है। सर्जक, सृजन और सृष्टि का मूल मंत्र है सत्यम्, शिवम् और सुंदरम्। ऋणात्मक ऊर्जा को घनात्मक बनाने का नाम ही तो सावन है? वरना चौमासे में कोई विवाह करता है क्या? जीव जिन-जिन चीजों से दूर भागता है, वह सभी शंकर जी को प्रिय हैं। यही तो शिवोत्सव है। कल्याणोत्सव।
-सूर्यकांत द्विवेदी