गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शिव बनो-शिव जपो





परिचय
संत प्रवर विजय कौशल महाराज रामकथा वाचक हैं। उनका मेरे ऊपर अनन्य उपकार है। उनकी सदकृपा से मुझे हनुमानजी के रूप में श्रीगुरु की प्राप्ति हुई। संत विजयकौशल जी की देश-विदेश में श्रीरामकथा की अमृतवाणी गूंजती है। हाल ही में वह श्रीलंका में अशोक वाटिका में श्रीरामकथा का आख्यायन करके आए हैं। सुंदर गेय शैली में श्रीरामकथा का अमृतपान कराने वाले कौशलजी कथा के साथ सामाजिक-राष्ट्रीय संदर्भो की विशद मीमांसा करते हैं। व्रंदावन में आश्रम, निवास और प्रवास। श्रीरामचरितमानस के शिव प्रसंग में पार्वती जी की विदाई के प्रसंग का कारुणिक चित्रण हर आंख को रुला देता है। आप भी पढिए।
सूर्यकांत द्विवेदी


शिव कृपा चाहिए तो जीवन को श्रद्धा से भरिए
-संत प्रवर विजय कौशल
हमारे ऋषि-मुनियों का यह अनुभव है कि इस सृष्टि के प्रारंभ होने के पूर्व भी सर्वत्र शिव तत्व ही व्याप्त था। शिव तत्व से ही सृष्टि उत्पन्न हुई। इसलिए सृष्टि के जन्मदाता का विचार तो हो सकता है, लेकिन शिव तो अजन्मा हैं, शिव तो अविनाशी हैं, अखंड हैं। वे तो स्वयं मृत्यु के स्वामी हैं, संहार के देवता हैं। अरे! संहारक का कौन संहार करेगा। भगवान शिव तो जीवन और मृत्यु दोनों के साक्षी हैं।
हमारे यहां देवाओं को अवतारों के रूप में पूजा जाता है। उनकी जयंतियां मनाई जाती हैं। उनके माता-पिता का स्मरण कर उनकी गाथाएं गाई जाती हैं। लेकिन, भगवान शिव तो स्वयंभू हैं। उनके न माता-पिता हैं और न जन्मतिथि। स्वयंभू ही शंभु के रूप में पूज्य हुए हैं।
हम ऐसा मानते हैं कि संपूर्ण सृष्टि राममय है। अत: हरिकथा या रामकथा सृष्टि की ही जीवन कथा है। अथवा तो काल, कर्म, गुणा, ज्ञान और स्वभाव के समग्रता से युक्त जेड चेतन की जीवन कथा है, हरिकथा है। और यह कथा अनंत बार भगवान शिव से ही प्रकट हुई है ''शंभु कीन्ह यह चरित सुहावा।। ÓÓ
भगवान शिव श्रद्धा और विश्वास के समग्र रूप हैं। एक व्यक्ति के जीवन पर भी विचार करें, तो जीवन को कोई भी क्रिया तभी प्रारंभ होती है, जब व्यक्ति में विश्वास और श्रद्धा का भाव होता है। दोनों में से एक का भी अभाव होने पर क्रिया नहीं हो सकती। भगवान शिव पूर्ण विश्वास हैं। कहते हैं कि जो टूट जाए वह स्वास है और जो कभी न टूटे वह विश्वास है। विश्वास जीवन है, अविश्वास मृत्यु है। हमारे शिव सदैव वटवृक्ष की छाया में ही बैठते हैं। वटवृक्ष भी विश्वास है वट विश्वास अचल नहीं धर्मा। वटवृक्ष और पर्वत दोनों ही अटल हैं, अमर हैं, अनंत हैं और स्थिर हैं। दोनों ही विश्राम और जीवन प्रदान करते हैं।
भगवान शिव को सभी भोला कहकर पुकारते हैं। इसका कारण यह है कि विश्वास सदैव भोला होता है। इसमें कोई छल या दिखावा नहीं होता। अविश्वासी व्यक्ति संशयालु होता है। अंदर से बहुत कमजोर होता है। इसी के कारण वह छल कपट करता है। कुछ छिपाता है-कुछ दिखाता है। भगवान शिव सदैव सहज रहते हैं, इसलिए शांत रहते हैं। धरे शरीर शांत रस जैसे।
भगवान शिव का साक्षात्कार करने के लिए एक बार ठीक से उनके स्वरूप का दर्शन करें--
''जटा मुकुट सुरसरित सिर-लोचन नलिन विशाल।
नीलकंठ लावण्यनिधि-सोह बाल विधु भाल।ÓÓ
एकदम पूर्ण और निष्काम का इससे अधिक सुंदर चित्रण नहीं हो सकता।
जटा मुकुट-सभी लोग स्वर्ण मुकुट चाहते हैं। मुकुट प्रतिष्ठा का प्रतीक है। जटाएं झंझट-जंजाल और क्लेशों की प्रतीक है। शिव ने सृष्टि के संपूर्ण जंजालों को भी अपने शीश पर प्रतिष्ठित कर लिया है। झंझटों को भी शोभा का रूप दे दिया है। हम जहां तहां झंझटों की जटाएं खोलकर बैठ जाते हैं। जब देखो तब झंझटों का ही रोना है। शिव इन झंझटों को भी आभूषण के रूप में स्वीकार करते है, इसलिए सदा शांत रहते हैं।
सुरसरित सिर-शिव के शांत रहने का यह भी कारण है कि इनके शीश पर श्री गंगाजी हैं। श्रीगंगाजी उज्जवलता, धवलता और शीतलता के सतत प्रवाह की प्रतीक हैं। निर्मलता और पवित्रता श्रीगंगाजी का गुण हैं। जिसके विचारों में गंगा जैसे गुण होंगे वह सदैव शांत और प्रवाहवान रहेगा।
हमारेविचार गदले और जड़ है इसलिए सदा अशांत ही रहते है।
शिव का तीसरा गुण है- ''लोचन नलिन विशालÓÓ- भगवान शिव के नेत्र निर्लिप्त हैं, सुंदर हैं और विशाल हैं। दृष्टि और दृष्टिकोण जितना विशाल होंगे उतना ही मनुष्य शांत और आनंदित रहेगा। आज संकुचित दृष्टि ने मनुष्य को अशांत कर दिया है। दृष्टि नलिन चाहिए। हमारी दृष्टि लिप्त और दूषित हो गई है। दृष्टि समन्यवशील व संतुलित चाहिए।
नीलकंठ- जगत के संपूर्ण विष को अपने कंठ में ही समा लेता है। न तो सटकता है और न ही उगलता है वही शिव है। विषैली बातों को पेट में गांठ बांधकर भी मत रखिए और बोलिए भी मत। अन्यथा संघर्ष और अशांति बनी रहेगी। शिव विष पीकर भी कंठ से जगत को सदैव श्रीराम कथा का अमृत प्रदान करते हैं ''हरषि सुधा सम गिरा उचारीÓÓ
जो इतने गुण धारण कर लेता है वह स्वयं ही लावन्य निधि हो जाता है। सोह बाल विधु भाल का अर्थ है चंद्र जैसे शीतल,निर्मल, उज्जवल विचारों वाले मन को अपने शीष पर प्रतिष्ठा देते हैं केवल चंद्रमा ही को क्यों वे तो नागों को, भूत प्रेतों को भी आदत सहित स्वीकार करते है। जो सभी को स्वीकार करता है वही शिव है, वही कल्याणकारी है। जीवन जीने की कला सीखने के लिए शिवजी के स्वरुप को ग्रहण करना आवश्यक है। शिव सदैव श्मशान में विचरण और नंदी की सवारी करते हंै। श्मशान मृत्यु की याद दिलाता है जो प्रतिदिन मृत्यु को याद रखेगा वह अनेकानेक प्रकार केपापों से बच जायेगा। व्यक्ति पाप करता ही तब है जब वह मान लेता है कि मैं कभी मरने वाला नहीं हूं। मौत पड़ोसी को तो जानती है लेकिन मेरा घर उसे मालूम नहीं है। शिव कहते हैं कि भैया भले ही श्मशान में मत रहो पर सदा श्मशान को याद रखो कि एक दिन यहां भी आना है। इसी के साथ भगवान शिव सदैव नंदी की सवारी करते हैं। नंदी धर्म का प्रतीक है। सदैव धर्म के वाहन पर चलोगे तो जीवन यात्रा सुखद और आनंदमय होगी। हम धर्म की चर्चा तो बहुत करते है लेकिन धर्म पर चलते नहीं हैं। यही चाहते हैं कि दूसरे सभी धर्म पर चलें। मेरा तो यही मार्ग ठीक है। धर्म पर चलने का उपदेश मत करिए अपितु दस पांच कदम चलिए। शिव की कृपा चाहिए तो जीवन को श्रद्धा से भरिये और भगवान श्रीराम की कृपा चाहिए तो जीवन शिव से भरिये। भगवान ने सभी को चेतावनी केस्वर में कहा है-'' शिव पद कमल जिन्हहिं रति नाहीं- रामहि ते सपनेहु न सोहाहीं।।ÓÓ
श्रीनारदजी को तो भगवान ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कह दिया है-
''जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी- सो न पाव मुनि भगति हमारीÓÓ
निष्कर्ष यही है कि प्रभु की कृपा चाहिए तो शिव कृपा प्राप्त करें और शिव कृपा प्राप्त करनी हो तो सहज बनें, सरल बनें, भोले बनें। भोले को तो भोलेबाबा पसंद करते है। जो जितना भोला हो जाएगा वह उतना ही बम के समान विस्फोटक बन जायेगा और अपने जीवन के संपूर्ण दुर्गणों को नष्ट कर देगा। भोले बम-बम-बम का यही सार्थक अर्थ है।




1 टिप्पणी:

  1. भाई सूर्यकांत ब्‍लाग देख कर खुशी हुई। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं‍ कि विश्‍वास और आस्‍था हमें ईश्‍वर तत्‍व से जोड़ती हैं। हमें सम्‍बल देती हैं परन्‍तु जीवन में प्रयोग के धरातल पर यह तथ्‍य यथावत स्‍वीकार्य नहीं होता। क्‍या कभी आपके जीवन में ऐसा नहीं हुआ कि विश्‍वास के चलते ज्ञान के अभाव ने आपको संकट में डाला हो। निश्चित ही जहां विश्‍वास होता है वहां ज्ञान नहीं होता। अस्‍तु हम जिस योनि में जी रहे हैं, उसमें हमें अविश्‍वास को डोर को थामे हुए ज्ञान तक पहुंचना है। हम जानते हैं, कि हम शिव नहीं हो सकते। हम जो हैं वहीं रह जाएं तो बड़ी बात होगी। इस टिप्‍पणी के लिए मुझे क्षमा कीजिएगा।
    -ओपी सक्‍सेना

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